Saturday, April 5, 2008

कभी कभी

कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है ...
के जिंदगी तेरे जुल्फों की नर्म छाओं में
गुजरने पाती तो शादाब हो भी सकती थी
ये तीरगी जो मेरी जीस्त का मुक़द्दर है
तेरी नज़रों की शुवाओं में खो भी सकती थी

अजब ना था के मैं बेगाना-ऐ-आलम होकर
जमाल की रानाईयों में खो रहता
तेरा गुदाज़ बदन तेरी नीम-बार आंखें
इन्ही हसीं फसानों में माहो रहता

पुकारती मुझे जब तल्खियां ज़माने
तेरे लबों से हलावात के घूँट पी लेता
हयात चीखती फिरती बरहना-सर,

और मैं घनेरी जुल्फों के साए में छुप के जी लेता

मगर यह हो न सका और अब यह आलम है
के तू नहीं, तेरा गम, तेरी जुस्तजू भी नहीं
गुज़र रही है कुछ इस तरह से ज़िंदगी जैसे
इसे किसी के सहारे की आरजू भी नहीं

न कोई जादा न मंजिल न रौशनी का सुराग
भटक रही है खलाओं में ज़िंदगी मेरी
इन्ही खलाओं में रह जाऊँगा कभी खो कर
मैं यह जानता हूँ मेरी हम्नाफास, मगर यूँ ही

कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है....

साहिर के यह अशार शायद किसी महबूबा की जुदाई के लिए लिखे गए हों....फ़िल्म में तो खैर उसी कैफियत के मानिंद था...लेकिन यह नज्म किसी बिछदी हुई महबूबा के नाकाम आशिक के दिल का हाल भर नही है। हर टूटे सपने के बिखरे टुकडों की आवाज़ है यह नज्म....और यह नज्म तब तक गूंजती है जब तक एक नया सपना, एक नई ख्वाहिश फिर से नही पनपती उन्ही टुकडों के बीच से...फिर से टूटने के लिए...फिर से इस नज्म को गुनगुनाने के लिए....

1 comment:

Manik said...

dada.. wah wah !!! seriously.. every word is worth reading..take care.. Manik