इस शहर ने बहुत ज़हीन शायर दिए हैं...और उनकी इस सांझी विरासत का, ख़ुद को भी एक हिस्सेदार समझता हूं...इसलिए ऐसे ही एक शायर, गुलज़ार की एक और नज्म को यहाँ पेश कर रहा हूँ.....जो शायद मेरी अब तक की ज़िंदगी की कहानी बयान करता है....
जिंदगी यूं हुई बसर तन्हा ,काफिला साथ और सफर तन्हा
अपने साए से चौंक जाते हैं, उम्र गुज़री हैं इस कदर तन्हा
रात भर बोलते हैं सन्नाटे, रात काटे कोई किधर तन्हा
दिन गुज़रता नहीं है लोंगों में, रात होती नहीं बसर तन्हा
हमने दरवाजे तक तो देखा था, फिर न जाने गए किधर तन्हा
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