Monday, December 31, 2007

आज कि कैफियत...

आज छुट्टी के दिन सुबह से कुछ लिखने की हसरत से यह पन्ना खोल कर बैठा था...इस उम्मीद से के बीते दिनों में यारों के साथ बिताये हुए लम्हों के बेतरतीब हर्फों को सलीके से सजाकर एक ख्याल की शक्ल दे दूं... मगर शाम ढले तक जब लफ्जों के गुच्छे नही सुलझा पाया तो गुलज़ार के इस पुखराज ने आज की कैफियत बयाँ कर दी...



खाली डिब्बा है फ़क़त, खोला हुआ चीरा हुआ

यूं ही दीवारों से भिड़ता हुआ, टकराता हुआ

बेवजह सड़कों पे बिखरा हुआ, फैलाया हुआ

ठोकरें खाता हुआ खली लुड़्कता डिब्बा

यूं भी होता है कोई खाली-सा बेकार-सा दिन


ऐसा बेकार-सा बेमानी-सा बेनाम-सा दिन...

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