हफ्तों पहले, यारों के बीच बैठकर एहसास हुआ...दिल ढूँढता है फिर वही फुरसत के रात दिन, बैठे हुए तस्सवुर-ऐ-जानां किए हुए... बस फिर क्या था, गालिब के इस ख़याल को मुक्कम्मल करने की तमन्ना से निकाल लिया अपना कारवां। इरादा यह की दीन-ओ-दुनिया से दूर होकर ख़ुद के करीब आ सकें...और इसके लिए देवभूमि ऋषिकेश से बेहतर पड़ाव नहीं सूझा। एक मजमा ज़िंदगी की दौड़ में बेतहाशा भागते जंग्जुओं का...दो दिनों का युध्ह विराम मनाने पहुंचे गंगा किनारे...जहाँ पहली बार गंगा पहाडों और छत्तों से लड़कर मैदानों के आगोश में आकर साँस लेती है। ख़ैर, दिन का काम ख़त्म कर, पिछले जुम्मे के दिन यह कारवां रवाना हुआ...सुबह जल्दी उठने के खौफ से शायद कोई रात को ठीक से सफ़र में सो भी नहीं पाया...जैसे तैसे, पौ फटने से पहले, हरिद्वार उतर कर भागे, आगे की सवारी लेने। मुह अंधेरे शीशम झाडी गेस्ट हाउस पहुँच कर लगा, जैसे रामसे बंधुओं की फिल्म सेट पर पहुँच गए हों...रात का सन्नाटा चीरती हुई सनसनाती हवा...कमी तो सिर्फ़ सफ़ेद साडी ओड़कर एकलालटेन हाथ में पकड़कर गाती हुई प्रेतात्मा की!
मगर जब आंखों से खुमारी गयी तो एहसास हुआ उस वादी की खुबसूरती का जिसके आगोश में अपने आपको पा रहे थे। कमरे से झाँका तो लगा पहाडियाँ अपनी बाहें पसारे न्यौता दे रहीं है, वहीं खो जाने को। खैर इस खूबसूरती को आंखों में बसा कर...गंगा की सतह पर बहने से अच्छा और कोई जरिया नही पूरे एहसास को अपने रगों मी उतार लेने का। फिर कारवां चला नागिन सी बलखाती सड़कों से होते हुए उस मुकाम पर जहाँ एक बिन पतवार की कश्ती इंतज़ार कर रही अपने माझीयों काअपने। अपने चप्पू हाथों में ले कमर आधा दर्जन माझी, गंगा की अरदास लगा कर रवाना कर दिए अपनी कश्ती को...पहाडियों के बीच से गुज़रते हुए..एक ऐसी नदी का दामन पकड़ कर बह रहे थे जिसने अपने किनारे दुनिया के सबसे पुरानी तहजीब को पनपते और फलते फूलते देखा और शायद गवाह भी रहेगी इसके नेस्तोनाबूद होने की। लेकिन कुदरत के इन नज़ारों के बीच से गुज़रते हुए सिर्फ़ ख़ुद को खुशकिस्मत ही महसूस कर रहे थे...फूलते हुए दम और चड्ती हुई साँसों को सिर्फ़ यह नजारे ही तो मायने दे रहे थे। इसी गंगा के किनारे देखा...मुल्क और तह्ज़ीबों की बंदिश से परे, साधना करते हुए कुछ मलंग योगी...घाट पर एक कुटिया बना कर और एक चट्टान पर धुनी रमाये एक साधू...ज़हन के किसी कोने में एक टीस जगा गया...शायद कभी ऐसी हिम्मत कर पाएं के जिनके इर्द गिर्द ज़िंदगी का ताना बाना बुना है, उससे अलग हो, ऐसी ही किसी पहाड़ की चोटी पर ख़ुद में ही खो सकें। ऋषिकेश के घाटों के किनारे किनारे आखिरकार अपनी मंजिल पहुँच गए...अधूरी नींद ने थकावट को दुगना कर दिया था और मुहीम शुरू हुई भूख मिटने की...पर देवभूमि में आकर इससे बेहतर क्या होता, के सुदामा के दोस्त के घर पर ही हमें भी तृप्ति मिले।
शाम को सोचा चलें गंगा आरती देखी जाए...लेकिन हमारी किस्मत में नही थी गंगा की इबादत में शरीक होना...तो राम झूला पर कर के गंगा किनारे एक घाट पर डेरा लगाया...सन्नाटे की जुम्बिश को महसूस किया...अँधेरा गहराया तो वापिस हो लिए...बाकि की शाम पैमाने में डुबोने के लिए। जब महफिल सजी तो एहसास नही था के गुलज़ार के एक पुखराज से अनगिनत मोती निकले जायेंगे...मै से ज़्यादा नशा तो अशारों में था...हर एक नज्म जैसी किसी न किसी की ज़िंदगी के कुछ लम्हों, कुछ एहसासों को रवां कर गयी। बात चली और जैसे जैसे अंधेरे के साथ सुरूर गहराया...परतें खुली और मौका मिला एक दूसरे दिल में झाकने का। कुछ दूसरों की सुनायी और अपनी बहुत कही...नशे की आड़ में दिल की कौन कौन सी गाँठें खुली, इसका हिसाब नही रख पाया...लेकिन एक ख्याल अभी तक साथ में है...तेरे मेरे नाम नए हैं, यह दर्द पुराना है...
अगले दिन सुबह, भरी सिर लेकर पहुंचे मालिश कराने...पिच्च्ली रात दिल के दर्द निकले थे, अब जिस्म की बारी थी। मालिश कर कर नाहर आए तो पता चला की यारों का गंगा स्नान तो हो गया, और फिर से तैय्यारी है माधव के मन्दिर जाने की...जैसे तैसे कूदते फांदते गंगा के किनारे पहुंचे, एक फक्त डुबकी के लिए...काम तो बन गया लेकिन दिल को सुकून नही आया...सोचा इसके लिए जाकर गिरिधर के अनजान में ही पनाह लेनी पड़ेगी...लेकिन जब किस्मत ही साथ न दे तो क्या किया जाए...पहुचते पहुँचते मनोहर ने अपने किवाड़ बंद कर लिए थे। थोडी देर वहीं ध्यान लगाकर खुदा से आस और मांगकर...एकादशी का भोग लगाया। उसके बाद कवायद शुरू हुई वापिस अपनी दुनिया में लौटने की...उसी जद्दो-जहद में, जिससे दूर आए थे सुकून की तलाश में...और सुकून मिला भी...इतना की एक वादा कर के आए, के इस सुकून की तलाश में यह कारवां फिर से आएगा...